अन्तर्द्वन्द
कहानी सुनोगे!
मेरी नही
मेरी तो बेरस है
पर इनका ढंग कुछ अलग है
खुश होती हैं तो
ज़ोर से ठहाके मारती हैं
मुझे भी गुद गुदाती है
और मैं एक नन्ही सी मुश्की
में खुशी बान्ध लेती हूँ
रोती है दिल खोलके जब
परेशान होती है जब तब
बांध खोलने की ज़िद्द करती है
मैं अकेले मे कुछ सिस्कियों से
लेकिन जी हल्का कर लेती हूँ
प्यार जब उमढ्कर आता है कभी
दिल पे ज़ोरों से दस्तक देके
कहती है मुझे आज़ाद करो
और मैं धीरे से पलक झपकाके
चुप्पी से होठों को सजा लेती हूं
इंसानीयत को मरता देख
झिंझोड्ती है मुझे और लालिमा
बन चेहरे तक पहुंच जाती है
कलम लिये मैं बस अपना गुस्सा
चंद शब्दों में उतार देती हूँ
मेरी भावनाएँ, निर्द्वन्द बेखौफ़
मेरी अभिव्यक्ति का संचालन चाहती हैं
और मैं सभ्यता का पाठ पढा कर
इन्हे बहला देती हूं, दबा देती हूं
निष्क्रिय ज्वालामुखी सी रह जाती हूँ
खुद निष्क्रिय ज्वालामुखी सी रह जाती हूं